kundali milan । कुंडली मिलान
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कुंडली मिलान |
विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है।
माता-पिता के पश्च्यात व्यक्ति का निकटतम सम्बन्ध पत्नी या पति के साथ रहता है, इस सम्बन्ध का प्रभाव केवल मनुष्य के जीवन तक ही नहीं, बल्कि उसके वंश की आगामी कई पीढ़ियों तक चलता है, क्यों की संतान परम्परा में पूर्वजों के गुण-दोष किसी न किसी रूप में विद्दमान रहते है।
दो युगलों की कुंडली की ग्रह स्थिति और जन्मनक्षत्र के आधार पर उनकी प्रकृति एवं अभिरुचि में समानता तथा पूरक तत्व का विचार ही मेलापक कहा जाता है।समान स्वभाव एवं समान रूचि के लोगों में सहज ही प्रेम होता है। जो लोग एक दूसरे के पूरक होते हैं, अथवा यह कह सकते हैं कि एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं, उनका साथ लंबे समय तक चलता है। मेलापक में इसी समानता एवं पूरक तत्व का विचार किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि मेलापक ज्योतिष शास्त्र की वह रीति है, जिसके द्वारा किसी अपरिचित युगल की प्रकृति एवम् अभिरुचि की समानता तथा जीवन के विविध पहलुओं में उनके पूरक तत्व का विचार किया जाता है।
अतः विवाह संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्मकुण्डली के अनुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है। गुण मिलान नहीं होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्ध नहीं होगी। गुण मिलाने हेतू मुख्य रूप से वर्णा आदि.. अष्टकूटों का मिलान किया जाता है।
इनके साथ-साथ लड़के की कुंडली से उसके स्वास्थ्य, शिक्षा, भाग्य, आयु, चरित्र एवं सन्तानोत्पादक-क्षमता का भी विचार करना आवश्यक है, वहीँ लड़की की कुण्डली से उसका स्वास्थ्य, स्वभाव, भाग्य, आयु, चरित्र एवं प्रजनन क्षमता का विचार करना भी आवश्यक होता हैं।
कुंडली में मंगल दोष
माता-पिता के पश्च्यात व्यक्ति का निकटतम सम्बन्ध पत्नी या पति के साथ रहता है, इस सम्बन्ध का प्रभाव केवल मनुष्य के जीवन तक ही नहीं, बल्कि उसके वंश की आगामी कई पीढ़ियों तक चलता है, क्यों की संतान परम्परा में पूर्वजों के गुण-दोष किसी न किसी रूप में विद्दमान रहते है।
दो युगलों की कुंडली की ग्रह स्थिति और जन्मनक्षत्र के आधार पर उनकी प्रकृति एवं अभिरुचि में समानता तथा पूरक तत्व का विचार ही मेलापक कहा जाता है।समान स्वभाव एवं समान रूचि के लोगों में सहज ही प्रेम होता है। जो लोग एक दूसरे के पूरक होते हैं, अथवा यह कह सकते हैं कि एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं, उनका साथ लंबे समय तक चलता है। मेलापक में इसी समानता एवं पूरक तत्व का विचार किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि मेलापक ज्योतिष शास्त्र की वह रीति है, जिसके द्वारा किसी अपरिचित युगल की प्रकृति एवम् अभिरुचि की समानता तथा जीवन के विविध पहलुओं में उनके पूरक तत्व का विचार किया जाता है।
अतः विवाह संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्मकुण्डली के अनुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है। गुण मिलान नहीं होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्ध नहीं होगी। गुण मिलाने हेतू मुख्य रूप से वर्णा आदि.. अष्टकूटों का मिलान किया जाता है।
इनके साथ-साथ लड़के की कुंडली से उसके स्वास्थ्य, शिक्षा, भाग्य, आयु, चरित्र एवं सन्तानोत्पादक-क्षमता का भी विचार करना आवश्यक है, वहीँ लड़की की कुण्डली से उसका स्वास्थ्य, स्वभाव, भाग्य, आयु, चरित्र एवं प्रजनन क्षमता का विचार करना भी आवश्यक होता हैं।
कुंडली में मंगल दोष
नक्षत्र मेलापक में प्रमुख रूप से निम्नलिखित 8 अष्टकूटों का विचार किया जाता है
जैसे- (1) वर्ण, (2) वश्य, (3) तारा, (4) योनि, (5) ग्रह मैत्री, (6) गण, (7) भकूट एवं (8) नाड़ी। इन वर्ण आदि आठों अष्टकूटों के गुण या पूर्णाक भी क्रमशः 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 एवं 8 होते हैं। इनका कुल योग 36 होता है
जैसे_ अष्टकूट गुणक
1 वर्ण
2 वश्य
3 तारा
4 योनि
5 ग्रह मैत्री
5 ग्रह मैत्री
6 गण
7 भकूट
8 नाड़ी
_______
7 भकूट
8 नाड़ी
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36 कुल योग
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ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियों को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों में बांटा गया है। वर्ण के मिलान को व्यक्ति के विकास एवं जातीय कर्म का मापदंड माना जाता है। इससे व्यक्ति के वैवाहिक जीवन का विकास जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष में 12 राशियों को कुल 4 वर्णो में समान रूप से विभाजित किया गया है जिसके कारण प्रत्येक वर्ण से संबंधित 3 राशियां होतीं हैं जो इस प्रकार हैं।
* ब्राह्मण वर्ण- कर्क,वृश्चिक तथा मीन राशि.
* क्षत्रिय वर्ण- मेष, सिंह तथा धनु राशि.
* वैश्य वर्ण- वृष, कन्या तथा मकर राशि.
* शुद्र वर्ण- मिथुन, तुला तथा कुंभ राशि.
इन सभी वर्णों में ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ तथा शूद्र सबसे निम्न माना जाता है। गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से श्रेष्ठ अथवा समान हो तो वर्ण मिलान का 1 में से 1 अंक प्रदान किया जाता है तथा यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से निम्न हो तो वर्ण मिलान को अशुभ मानते हुए 1 में से 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वर्ण दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू को वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त नहीं हो पाता जिसके पीछे वैदिक ज्योतिषियों की यह धारणा है कि वर का वर्ण वधू से श्रेष्ठ होने की स्थिति में ही वह अपनी वधू को नियंत्रित करने में तथा उसका मार्गदर्शन करनें में सफल हो पाता है।
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1. कुंडली मिलान में वर्ण की महत्ता
ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियों को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों में बांटा गया है। वर्ण के मिलान को व्यक्ति के विकास एवं जातीय कर्म का मापदंड माना जाता है। इससे व्यक्ति के वैवाहिक जीवन का विकास जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष में 12 राशियों को कुल 4 वर्णो में समान रूप से विभाजित किया गया है जिसके कारण प्रत्येक वर्ण से संबंधित 3 राशियां होतीं हैं जो इस प्रकार हैं।
* ब्राह्मण वर्ण- कर्क,वृश्चिक तथा मीन राशि.
* क्षत्रिय वर्ण- मेष, सिंह तथा धनु राशि.
* वैश्य वर्ण- वृष, कन्या तथा मकर राशि.
* शुद्र वर्ण- मिथुन, तुला तथा कुंभ राशि.
इन सभी वर्णों में ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ तथा शूद्र सबसे निम्न माना जाता है। गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से श्रेष्ठ अथवा समान हो तो वर्ण मिलान का 1 में से 1 अंक प्रदान किया जाता है तथा यदि वर की चन्द्र राशि का वर्ण वधू की चन्द्र राशि के वर्ण से निम्न हो तो वर्ण मिलान को अशुभ मानते हुए 1 में से 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वर्ण दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू को वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त नहीं हो पाता जिसके पीछे वैदिक ज्योतिषियों की यह धारणा है कि वर का वर्ण वधू से श्रेष्ठ होने की स्थिति में ही वह अपनी वधू को नियंत्रित करने में तथा उसका मार्गदर्शन करनें में सफल हो पाता है।
2. कुंडली मिलान में वश्य की महत्ता
जन्मकुण्डली में वश्य से यह जाना जाता है कि जातक के जीवन में परस्पर कितना प्रेम और आकर्षण होगा।
वश्य पाँच प्रकार के होते हैं जैसे- 1- द्विपद, 2-चतुष्पद, 3-कीट, 4-वनचर तथा 5-जलचर ।
इन वश्यों को भी वर्णों की भांति ही श्रेष्ठता से निम्नता का क्रम दिया गया है। वर एवं कन्या की राशियों से उनके वश्य का निश्चय करके फिर उनके स्वभाव के अनुसार उनमें वश्यभाव, मित्रभाव, शत्रुभाव या भक्ष्य भाव पर ध्यान देना चाहिए।
गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वश्य वधू की चन्द्र राशि के वश्य से श्रेष्ठ है तो वश्य मिलान के 2 में से 2 अंक प्रदान किये जाते हैं तथा वर का वश्य वधू के वश्य से निम्न होने की स्थिति में ये अंक उसी अनुपात में कम होते जाते हैं जिस अनुपात में वर का वश्य कन्या के वश्य से निम्न होता जाता है तथा इस क्रम में वर का वश्य कन्या के वश्य से बहुत निम्न तथा निम्नतम होने की स्थिति में वश्य मिलान के लिए क्रमश आधा तथा 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वश्य दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू के वैवाहिक जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं आतीं हैं।
* मेष, वृ्ष, सिंह व धनु का उत्तरार्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पाद संज्ञक होते हैं।
सिंह राशि चतुष्पाद होते हुए भी वनचर मानी गई है।
वश्य पाँच प्रकार के होते हैं जैसे- 1- द्विपद, 2-चतुष्पद, 3-कीट, 4-वनचर तथा 5-जलचर ।
इन वश्यों को भी वर्णों की भांति ही श्रेष्ठता से निम्नता का क्रम दिया गया है। वर एवं कन्या की राशियों से उनके वश्य का निश्चय करके फिर उनके स्वभाव के अनुसार उनमें वश्यभाव, मित्रभाव, शत्रुभाव या भक्ष्य भाव पर ध्यान देना चाहिए।
गुण मिलान के नियम के अनुसार यदि वर की चन्द्र राशि का वश्य वधू की चन्द्र राशि के वश्य से श्रेष्ठ है तो वश्य मिलान के 2 में से 2 अंक प्रदान किये जाते हैं तथा वर का वश्य वधू के वश्य से निम्न होने की स्थिति में ये अंक उसी अनुपात में कम होते जाते हैं जिस अनुपात में वर का वश्य कन्या के वश्य से निम्न होता जाता है तथा इस क्रम में वर का वश्य कन्या के वश्य से बहुत निम्न तथा निम्नतम होने की स्थिति में वश्य मिलान के लिए क्रमश आधा तथा 0 अंक प्रदान किया जाता है जिसके कारण वश्य दोष बन जाता है जिसके कारण ऐसे वर वधू के वैवाहिक जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं आतीं हैं।
* मेष, वृ्ष, सिंह व धनु का उत्तरार्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पाद संज्ञक होते हैं।
सिंह राशि चतुष्पाद होते हुए भी वनचर मानी गई है।
* मिथुन, कन्या, तुला, धनु का पूर्वार्द्ध तथा कुंभ राशि द्विपद या मानव संज्ञक मानी गई हैं।
* मकर का उत्तरार्द्ध, मीन तथा कर्क राशि जलचर होती हैं। इनमे कर्क राशि जलचर होते हुए भी किट मानी गई है।
* मकर का उत्तरार्द्ध, मीन तथा कर्क राशि जलचर होती हैं। इनमे कर्क राशि जलचर होते हुए भी किट मानी गई है।
इस प्रकार वर एवं कन्या के वश्य का निर्धारण उनकी राशि से कर लेना चाहिए।
कुंडली में शिक्षा का योग.
जैसे- 1-जन्म 2-सम्पत् 3-विपत् 4-क्षेम 5-प्रत्यरि 6-साधक 7-वध 8-मित्र एवं 9-अतिमित्र
* इनके मिलान से 3 अंक प्राप्त होता है। तारा के शुभ-अशुभ की जानकारी के लिए वर के नक्षत्र से कन्या के नक्षत्र तक गिनकर प्राप्त संख्या में 9 का भाग दें जो संख्या शेष बची उस की तारा होगी, इसी प्रकार कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनकर तारा संख्या प्राप्त करें. कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक तथा वर के जन्म नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक गिनें और दोनों संख्याओं को अलग -अलग 9 से भाग दें अगर शेष 3,5,7 हो तो तारा अशुभ अन्यथा शुभ होगी।
कुंडली में शिक्षा का योग.
3. कुंडली मिलान में तारा की महत्ता
वर एवं कन्या की जन्मकुण्डली मिलाते समय तारा से भाग्य के बारे में जाना जाता है।तारा नौ प्रकार की होती हैं।
जैसे- 1-जन्म 2-सम्पत् 3-विपत् 4-क्षेम 5-प्रत्यरि 6-साधक 7-वध 8-मित्र एवं 9-अतिमित्र
* इनके मिलान से 3 अंक प्राप्त होता है। तारा के शुभ-अशुभ की जानकारी के लिए वर के नक्षत्र से कन्या के नक्षत्र तक गिनकर प्राप्त संख्या में 9 का भाग दें जो संख्या शेष बची उस की तारा होगी, इसी प्रकार कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनकर तारा संख्या प्राप्त करें. कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक तथा वर के जन्म नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक गिनें और दोनों संख्याओं को अलग -अलग 9 से भाग दें अगर शेष 3,5,7 हो तो तारा अशुभ अन्यथा शुभ होगी।
* ताराओं के नाम के अनुसार ही इनके फल हैं. 3-विपत्, 5-प्रत्यरि एवं 7- वध अपने नाम के अनुसार अशुभ है, तथा बाकी की तारा शुभ कही गई हैं। पहले वर एवं वधु की ताराओं का निर्धारण कर लेना चाहिए।
यदि दोनों प्रकार से तारा विपत, प्रत्यरि एवं वध ना हो तो तारा शुभ होती है तथा उसके पूरे तीन अंक माने जाते हैं. दोनों तारा अशुभ हो तो 0 गुण , दोनों शुभ हों तो 2 गुण ,एक अशुभ व दूसरी शुभ हों तो 1 गुण होता है ।
यदि दोनों प्रकार से तारा विपत, प्रत्यरि एवं वध ना हो तो तारा शुभ होती है तथा उसके पूरे तीन अंक माने जाते हैं. दोनों तारा अशुभ हो तो 0 गुण , दोनों शुभ हों तो 2 गुण ,एक अशुभ व दूसरी शुभ हों तो 1 गुण होता है ।
4. कुंडली मिलान में योनि की महत्ता
योनि से वर-वधू की शारीरिक समानता के बारे में जाना जाता है (योनि का विचार न केवल वर-वधू के मेलापक में ही विचारणीय होता है, बल्कि यह साझेदारी, मालिक, नौकर एवं रजा तथा मंत्री के परस्पर मेलापक में भी विचारणीय है)।
जन्मकुण्डली के मिलान में योनि मिलान को 4 अंक प्राप्त हैं. शास्त्रों में लिखा है कि हम जब जन्म लेते हैं, तब किसी ना किसी योनि को लेकर आते हैं. व्यक्ति के स्वभाव तथा व्यवहार में उसकी योनि की झलक अवश्य दिखाई देती है. नक्षत्रों के आधार पर व्यक्ति की योनि ज्ञात की जाती है। कई योनियाँ एक-दूसरे की परम शत्रु होती हैं. जैसे मार्जार (बिल्ली) और मूषक (चूहा), गौ और व्याघ्र यह आपस में महावैर रखते हैं. इनका आपसी तालमेल कभी भी सही नहीं हो सकता है.इसलिए कुण्डली मिलाते समय हमें कोशिश करनी चाहिए कि वर तथा कन्या की योनियों का महावैर नहीं हो।
योनि विचार में पूर्ण शुभता के 4 अंक होते हैं।
योनि विचार में पूर्ण शुभता के 4 अंक होते हैं।
समान योनि होने पर 4 अंक
मित्र योनि होने पर 3 अंक
समयोनि के 2 अंक
शत्रु योनि का 1 अंक अतिशत्रु योनि का 0 अंक माना जाता है।
योनियाँ 14 प्रकार की होती हैं ,
जैसे- (1) अश्व, (2) गज, (3) मेष, (4) सर्प, (5) श्वान, (6) मार्जार, (7) मूषक, (8) गौ, (9) महिष, (10) व्याघ्र, (11) मृ्ग, (12) वानर, (13) नकुल एवं (14) सिंह।
योनि विचार में नक्षत्रों की संख्या 28 मानी गई हैं. इसमें अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया गया है. व्यक्ति के जन्म नक्षत्र के आधार पर उसकी योनि का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए. योनि विचार में समान योनि शुभ मानी गई हैं. मित्र योनि और भिन्न योनि भी ले सकते हैं परन्तु वैर (शत्रु योनि) योनि सर्वथा वर्जित है।
मेलापक में ग्रहमैत्री का काफी महत्त्व है। जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है, वह राशि तथा उसका स्वामी ग्रह ये दोनों व्यक्ति के सहज स्वभाव के परिचायक होते हैं। चंद्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है। यह जन्मकाल में जिस राशि में स्थित होता है, व्यक्ति की मनोवृत्ति एवं स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। अनजान व्यक्तियों में मित्रता रहेगी या शत्रुता ? इसकी जानकारी ज्योतिष शास्त्र में उन व्यक्तियों के राशि स्वामियों की मित्रता या शत्रुता से जानी जाती है। एक ही राशि होने पर आपस में विचारों में भिन्नता नहीं रहती है. जीवन की गाडी़ सुचारु रुप से चलाने में सफलता मिलती है. कलह – क्लेश कम होते हैं. दोनों की चन्द्र राशियों के स्वामी यदि आपस में शत्रु भाव रखते हैं तब पारीवारिक जीवन में तनाव रहने की अधिक संभावना रहती है। यही कारण है कि वर-वधू के मेलापक में ग्रहमैत्री को इतना महत्त्व दिया गया है।
* जब वर तथा वधु की एक राशि हो या दोनों के राशि स्वामी मित्र हों तब पूरे पाँच अंक मिलते हैं।
* यदि एक का राशि स्वामी मित्र तथा दूसरे का सम है तब चार अंक मिलते हैं. दोनों के राशि स्वामी सम है तब तीन अंक मिलते हैं. एक की राशि का स्वामी मित्र तथा दूसरे का शत्रु है तब एक अंक मिलता है। एक सम और दूसरा शत्रु है तब आधा अंक मिलता है. यदि दोनों के राशि स्वामी आपस में शत्रु है तब शून्य अंक मिलता है।
कुंडली में संतान का योग
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हमारे गण का निर्धारण जन्म नक्षत्र से होता है अर्थात जिस नक्षत्र में हमारा जन्म होता है उसके अनुसार हमारा गण निर्घारित होता है।
(1) देव गण_ अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अनुराधा, श्रवण तथा रेवती
* स्वभाव- देवगण में उत्त्पन्न व्यक्ति स्वभावतः सात्विक होता है। इसमें भावुकता, उदारता, सहनशीलता, प्रेम, उपकार, दया, धैर्य, आत्मविश्वास, बन्धुत्व एवं लोकप्रियता पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है।
(2) मनुष्य गण_ भरणी, रोहिणी, आर्द्र, पूर्व फाल्गुणी, उत्तर फालगुणी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, पूर्वभाद्रपद तथा उत्तरभाद्रपद
* स्वभाव- मनुष्य गण में उत्पन्न व्यक्ति चतुर, चैतन्य, दूरदर्शी, स्वाभिमानी, साहसी, अपने हित का चिंतक तथा अपने हित की रक्षा करने वाला, सौंदर्य प्रेमी, व्यवहार कुशल, सामाजिक कार्यकर्त्ता, प्रभावशाली, प्रतिष्ठा तथा यश चाहने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति भोगोपभोग, प्रभाव एवं प्रतिष्ठा को सर्वाधिक महत्व देने वाला होता है।
(3)राक्षस गण_ कृतिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा तथा शतभिषा
* स्वभाव- राक्षस गण में उत्पन्न व्यक्ति साहसी, क्रोधी, स्वार्थी, धूर्त, चालक, लोगों पे रौब ज़माने वाला, जिद्दी, लापरवाह, क्षणिक मति बलवान्, अभिमानी, कठोर एवं दृढ़भाषी, परनिंदक, उग्र, दृढ निश्चयी, एकाधिकार में विश्वास रखने वाला तथा अपनी इच्छा या अपने हित के लिए किसी को भी हानि पहुँचाने वाला होता है
इन गणों में से वर-वधू के गणों का परस्पर मिलान किया जाता है तथा इस मिलान के आधार पर इनको अंक प्रदान किये जाते हैं।
इस मिलान का विवरण निम्न प्रकार है।
योनियाँ 14 प्रकार की होती हैं ,
जैसे- (1) अश्व, (2) गज, (3) मेष, (4) सर्प, (5) श्वान, (6) मार्जार, (7) मूषक, (8) गौ, (9) महिष, (10) व्याघ्र, (11) मृ्ग, (12) वानर, (13) नकुल एवं (14) सिंह।
योनि विचार में नक्षत्रों की संख्या 28 मानी गई हैं. इसमें अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया गया है. व्यक्ति के जन्म नक्षत्र के आधार पर उसकी योनि का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए. योनि विचार में समान योनि शुभ मानी गई हैं. मित्र योनि और भिन्न योनि भी ले सकते हैं परन्तु वैर (शत्रु योनि) योनि सर्वथा वर्जित है।
5. कुंडली मिलान में ग्रहमैत्री की महत्ता
मेलापक में ग्रहमैत्री का काफी महत्त्व है। जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है, वह राशि तथा उसका स्वामी ग्रह ये दोनों व्यक्ति के सहज स्वभाव के परिचायक होते हैं। चंद्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है। यह जन्मकाल में जिस राशि में स्थित होता है, व्यक्ति की मनोवृत्ति एवं स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। अनजान व्यक्तियों में मित्रता रहेगी या शत्रुता ? इसकी जानकारी ज्योतिष शास्त्र में उन व्यक्तियों के राशि स्वामियों की मित्रता या शत्रुता से जानी जाती है। एक ही राशि होने पर आपस में विचारों में भिन्नता नहीं रहती है. जीवन की गाडी़ सुचारु रुप से चलाने में सफलता मिलती है. कलह – क्लेश कम होते हैं. दोनों की चन्द्र राशियों के स्वामी यदि आपस में शत्रु भाव रखते हैं तब पारीवारिक जीवन में तनाव रहने की अधिक संभावना रहती है। यही कारण है कि वर-वधू के मेलापक में ग्रहमैत्री को इतना महत्त्व दिया गया है।
* जब वर तथा वधु की एक राशि हो या दोनों के राशि स्वामी मित्र हों तब पूरे पाँच अंक मिलते हैं।
* यदि एक का राशि स्वामी मित्र तथा दूसरे का सम है तब चार अंक मिलते हैं. दोनों के राशि स्वामी सम है तब तीन अंक मिलते हैं. एक की राशि का स्वामी मित्र तथा दूसरे का शत्रु है तब एक अंक मिलता है। एक सम और दूसरा शत्रु है तब आधा अंक मिलता है. यदि दोनों के राशि स्वामी आपस में शत्रु है तब शून्य अंक मिलता है।
कुंडली में संतान का योग
6. कुंडली मिलान में गण की महत्ता
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हमारे गण का निर्धारण जन्म नक्षत्र से होता है अर्थात जिस नक्षत्र में हमारा जन्म होता है उसके अनुसार हमारा गण निर्घारित होता है।
(1) देव गण_ अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अनुराधा, श्रवण तथा रेवती
* स्वभाव- देवगण में उत्त्पन्न व्यक्ति स्वभावतः सात्विक होता है। इसमें भावुकता, उदारता, सहनशीलता, प्रेम, उपकार, दया, धैर्य, आत्मविश्वास, बन्धुत्व एवं लोकप्रियता पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है।
(2) मनुष्य गण_ भरणी, रोहिणी, आर्द्र, पूर्व फाल्गुणी, उत्तर फालगुणी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, पूर्वभाद्रपद तथा उत्तरभाद्रपद
* स्वभाव- मनुष्य गण में उत्पन्न व्यक्ति चतुर, चैतन्य, दूरदर्शी, स्वाभिमानी, साहसी, अपने हित का चिंतक तथा अपने हित की रक्षा करने वाला, सौंदर्य प्रेमी, व्यवहार कुशल, सामाजिक कार्यकर्त्ता, प्रभावशाली, प्रतिष्ठा तथा यश चाहने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति भोगोपभोग, प्रभाव एवं प्रतिष्ठा को सर्वाधिक महत्व देने वाला होता है।
(3)राक्षस गण_ कृतिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा तथा शतभिषा
* स्वभाव- राक्षस गण में उत्पन्न व्यक्ति साहसी, क्रोधी, स्वार्थी, धूर्त, चालक, लोगों पे रौब ज़माने वाला, जिद्दी, लापरवाह, क्षणिक मति बलवान्, अभिमानी, कठोर एवं दृढ़भाषी, परनिंदक, उग्र, दृढ निश्चयी, एकाधिकार में विश्वास रखने वाला तथा अपनी इच्छा या अपने हित के लिए किसी को भी हानि पहुँचाने वाला होता है
इन गणों में से वर-वधू के गणों का परस्पर मिलान किया जाता है तथा इस मिलान के आधार पर इनको अंक प्रदान किये जाते हैं।
इस मिलान का विवरण निम्न प्रकार है।
* यदि वर तथा वधू दोनों के गण समान देव-देव, मानव-मानव अथवा राक्षस-राक्षस हों अथवा वर का गण देव तथा कन्या का गण मनुष्य हो तो ऐसे गण मिलान को उत्तम माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 6 अंक प्रदान किये जाते हैं। तो विवाह के लिए बहुत ही उत्तम स्थिति होती है।
* गण समान होने पर अगर आप शादी करते हैं तो पति पत्नी के सम्बन्ध में प्रेम और तालमेल बना रहता है। गण मिलान में अगर एक का गण देव आता है और दूसरे का मनुष्य तब भी वैवाहिक सम्बन्ध हो सकता है इसमें भी विशेष परेशानी नहीं आती है इसे सामान्य की श्रेणी में रखा गया है। शास्त्रों के अनुसार देव और मनुष्य में सम्बन्ध बन सकता है।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: मनुष्य-देव हों तो ऐसे गण मिलान को सामान्य माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 5 अंक प्रदान किये जाते हैं।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: देव-राक्षस अथवा राक्षस-देव हों तो ऐसे गण मिलान को अशुभ माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 1 अंक प्रदान किया जाता है।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: मानव-राक्षस अथवा राक्षस-मानव हों तो ऐसे गण मिलान को अति अशुभ माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 0 अंक प्रदान किया जाता है। परंतु इनके लिए राक्षस गण वाले से विवाह को अशुभ बताया गया है। अगर आपकी कुण्डली में गणकूट राक्षस है तो राक्षस गणकूट वाले व्यक्ति से ही विवाह करने की सलाह दी जाती है ।
आइये जानते हैं गण मिलान में कैसे अंक प्राप्त होते हैं।
* वर-वधू दोनों के गणकूट देव -देव गण हों तो गुणांक 6-मिलता है।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: मनुष्य-देव हों तो ऐसे गण मिलान को सामान्य माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 5 अंक प्रदान किये जाते हैं।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: देव-राक्षस अथवा राक्षस-देव हों तो ऐसे गण मिलान को अशुभ माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 1 अंक प्रदान किया जाता है।
यदि वर वधू दोनों के गण क्रमश: मानव-राक्षस अथवा राक्षस-मानव हों तो ऐसे गण मिलान को अति अशुभ माना जाता है तथा इसके लिए 6 में से 0 अंक प्रदान किया जाता है। परंतु इनके लिए राक्षस गण वाले से विवाह को अशुभ बताया गया है। अगर आपकी कुण्डली में गणकूट राक्षस है तो राक्षस गणकूट वाले व्यक्ति से ही विवाह करने की सलाह दी जाती है ।
आइये जानते हैं गण मिलान में कैसे अंक प्राप्त होते हैं।
* वर-वधू दोनों के गणकूट देव -देव गण हों तो गुणांक 6-मिलता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर मनुष्य -मनुष्य हों तो गुणांक 6-प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर राक्षस-राक्षस हों तो गुणांक 6 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर मनुष्य -देव हों तो गुणांक 5 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर मनुष्य -देव हों तो गुणांक 5 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर देव – मनुष्य हों तो गुणांक 5 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर मनुष्य – राक्षस हों तो गुणांक 1 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर राक्षस – मनुष्य हों तो गुणांक1 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर देव – राक्षस हों तो गुणांक 0 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर राक्षस – देव हों तो गुणांक 0 प्राप्त होता है।
गण दोष परिहार
* दोनों के राशीश परस्पर मित्र हों।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर मनुष्य – राक्षस हों तो गुणांक 1 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर राक्षस – मनुष्य हों तो गुणांक1 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर देव – राक्षस हों तो गुणांक 0 प्राप्त होता है।
* वर-वधू दोनों के गणकूट अगर राक्षस – देव हों तो गुणांक 0 प्राप्त होता है।
गण दोष परिहार
* दोनों के राशीश परस्पर मित्र हों।
* दोनों के राशीश एक हों।
* दोनों के नवमांशेश परस्पर मित्र हों।
* दोनों के नवमांशेश एक हो।
वर तथा वधू दोनों की चन्द्र राशि एक ही होने की स्थिति में गण दोष का परिहार माना जाता है जैसे कि यदि वर का जन्म नक्षत्र उत्तरफाल्गुनी है तथा वधू का नक्षत्र चित्रा है तथा दोनों की ही जन्म राशि अर्थात चन्द्र राशि कन्या है तो इस स्थिति में बनने वाला गण दोष प्रभावी नहीं माना जाता।
* दोनों के नवमांशेश परस्पर मित्र हों।
* दोनों के नवमांशेश एक हो।
वर तथा वधू दोनों की चन्द्र राशि एक ही होने की स्थिति में गण दोष का परिहार माना जाता है जैसे कि यदि वर का जन्म नक्षत्र उत्तरफाल्गुनी है तथा वधू का नक्षत्र चित्रा है तथा दोनों की ही जन्म राशि अर्थात चन्द्र राशि कन्या है तो इस स्थिति में बनने वाला गण दोष प्रभावी नहीं माना जाता।
भकूट की जानकारी का सीधा तरीका यह है कि वर की राशि से कन्या की राशि तक तथा कन्या की राशि से वर की राशि तक गिनती कर लेनी चाहिए। यदि इन दोनों की राशि आपस में दूसरे एवं बारहवें पड़ती हो तो द्विर्द्वादश भकूट होता है। यदि 9वीं या 5वीं पड़ती हो तो नव पंचम भकूट होता है और यदि छठे एवं 8वें पड़ती हो षडाष्टक भकूट होता है।7. कुंडली मिलान में भकूट का महत्व
भकूट का तात्पर्य वर-वधू की राशियों के आपसी अंतर से है। भकूट अशुभ होने से वह जीवन में धन, संतान और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। यह 6 प्रकार का होता है।
(1) प्रथम- सप्तम
(2) द्वितीय-द्वादश / द्विर्द्वादश
(3) तृतीय-एकादश
(4) चतुर्थ-दशम
(5) पंचम-नवम / नवपंचम
(6) षडाष्टक, इनमे द्विर्द्वादश, नवपंचम् एवं षडाष्टक ‘दुष्ट भकूट’ तथा शेष भकूट कहलाते हैं ।इनके रहने पर भकूट दोष माना जाता है।
भकूट का तात्पर्य वर-वधू की राशियों के आपसी अंतर से है। भकूट अशुभ होने से वह जीवन में धन, संतान और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। यह 6 प्रकार का होता है।
(1) प्रथम- सप्तम
(2) द्वितीय-द्वादश / द्विर्द्वादश
(3) तृतीय-एकादश
(4) चतुर्थ-दशम
(5) पंचम-नवम / नवपंचम
(6) षडाष्टक, इनमे द्विर्द्वादश, नवपंचम् एवं षडाष्टक ‘दुष्ट भकूट’ तथा शेष भकूट कहलाते हैं ।इनके रहने पर भकूट दोष माना जाता है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार द्विर्द्वादश भकूट का दोष होने पर क्यों की दूसरा भाव धन का तथा बारहवां भाव खर्च का होता है जिससे की वर-वधू के खर्चे को बहुत बढ़ा देगा जिससे आर्थिक असंतुलन विगड़ा रहेगा। नव-पंचम भकूट दोष होने से दोनों को संतान पैदा करने में मुश्किल होती है या फिर सतान होती ही नहीं। षडाष्टक भकूट दोष होने पर वर-वधू के भावी जीवन में शत्रुता, विवाद, कलह एवं रोजाना के झगड़े-झंझट होते रहते हैं। न केवल जातक बल्कि नव-दंपत्ति में से किसी एक की हत्या या आत्महत्या होने की आशंका रहती है।
भकूट दोष निम्नलिखित स्थितियों में भंग माना जाता है
* यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो भकूट दोष खत्म हो जाता है। जैसे कि मेष-वृश्चिक तथा वृष-तुला राशियों के एक दूसरे से छठे-आठवें स्थान पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि मेष-वृश्चिक दोनों राशियों के स्वामी मंगल हैं तथा वृष-तुला दोनों राशियों के स्वामी शुक्र हैं। इसी प्रकार मकर-कुंभ राशियों के एक दूसरे से द्वी-द्वादश स्थानों पर होने के बावजूद भी भकूट दोष नहीं बनताक्योंकि इन दोनों राशियों के स्वामी शनि हैं।
* यदि वर-वधू दोनों की जन्म कुंडलियों में चन्द्र राशियों के स्वामी आपस में मित्र हैं तो भी भकूट दोष खत्म हो जाता है जैसे कि मीन-मेष तथा मेष-धनु में भकूट दोष नहीं बनता क्योंकि इन दोनों ही उदाहरणों में राशियों के स्वामी गुरू तथा मंगल हैं जो कि आपसे में मित्र माने जाते हैं।


शुभ भकूट का फल
मेलापक में राशि अगर प्रथम-सप्तम हो तो शादी के पश्चात पति पत्नी दोनों का जीवन सुखमय होता है और उन्हे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।
वर कन्या का परस्पर तृतीय-एकादश भकूट हों तो उनकी आर्थिक अच्छी रहती है एवं परिवार में समृद्धि रहती है,
जब वर कन्या का परस्पर चतुर्थ-दशम भकूट हो तो शादी के बाद पति पत्नी के बीच आपसी लगाव एवं प्रेम बना रहता है।
जैसे शारीर के वात, पित्त एवं कफ इन तिन दोषों की जानकारी नाड़ी स्पन्दन द्वारा होती है। ठीक उसी प्रकार दो अपिरिचित व्यक्तियों के मन की जानकारी आदि, मध्य एवम् अन्त नाड़ियों से की जा सकती है।संकल्प, विकल्प एवं क्रिया-प्रतिक्रिया करना मन के सहज कार्य हैं। इन तीनो की परिचायक उक्त तिन नाड़ियाँ होती है।
नाड़ियाँ 3 होती हैं_ आदि, मध्य एवम् अन्त्य
1- आदि नाड़ी- अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी,हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पुर्वाभाद्रपद।
2- मध्य नाड़ी- भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वाफाल्गुनी,चित्रा, अनुराधा, पुर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तरासभाद्रपद।
3-अन्त्य नाड़ी- कृतिका, रोहिणी, अश्लेशा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण, रेवती आदि मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है, लेकिन कुछ स्थानों पर चर्तुनाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्रभी प्रचलित है, लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाड़ी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है।
नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है, इसके बारे मे जानकारी हेतू त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवश्यकत है।आदि नाड़ी वात् स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित स्वभाव की मानी गई है, जबकि मध्य नाड़ी पित् प्रति एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है। इसका प्रमुख कारण यही है कि वात् स्वभाव के वर का विवाह यदि वात् स्वभाव की कन्या से हो तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नहीं होती।
नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहें हो तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता, अन्यथा उनमें व्यभिचार का दोष पैदा होने की सभांवना रहती है। मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है। इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अंह के कारण सम्बंन्ध अच्छे नहीं बन पाते। उनमें विकर्षण कि सभांवना बनती है। परस्पर लड़ाई -झगड़े होकर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है।
इस प्रकार की स्थिति मे प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें, जिस प्रकार वात प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए वात नाड़ी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है, अथवा कफ प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए कफ नाड़ी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाड़ी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मकताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित किया जाता है।
लड़का- लड़की की एक समान नाड़ियां हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है, इसलिए मेलापक में आदि नाड़ी के साथ आदि नाड़ी का, मध्य नाड़ी के साथ मध्य का और अंत्य नाड़ी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है। जब कि ल़ड़का-लड़की की भिन्न-भिन्न नाड़ी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है। यदि वर एवं कन्या कि नाड़ी अलग-अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है। यदि वर एवं कन्या दोनों का जन्म यदि एक ही नाड़ी मे हो तो नाड़ी दोष माना जाता है। सामान्य नाड़ी दोष होने पर ये उपाय दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर सकते हैं।
विवाह के पश्चात् उत्पन्न संतान मे भी वात सम्भावना रहती है। इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है, अन्यथा उनमें व्याभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है। मध्य नाड़ी को पित् स्वभाव की मानी गई है, इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहं के कारण सम्बंन्ध अच्छे नहीं बन पाते, उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है। परस्पर लड़ाई-झगड़े होकर तलाक की नौबत आ जाती है।
विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी गई है, इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमें कामभाव ( सेक्स )की कमी पैदा होने लगती है। शान्त स्वभाव के कारण उनमे परस्पर सामंजस्य का अभाव रहता है। दांपत्य मे गलतफहमी होना भी स्वभाविक होती है। एक नाड़ी होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है। लेकिन नाड़ी दोष परिहार की स्थिति में यदि कुण्डली मिलान उत्तम बना रहा है, तो विवाह किया जा सकता है।
कुंडली में संतान का योग
जब वर कन्या का परस्पर चतुर्थ-दशम भकूट हो तो शादी के बाद पति पत्नी के बीच आपसी लगाव एवं प्रेम बना रहता है।
8. कुंडली मिलान में नाड़ी की महत्ता
जैसे शारीर के वात, पित्त एवं कफ इन तिन दोषों की जानकारी नाड़ी स्पन्दन द्वारा होती है। ठीक उसी प्रकार दो अपिरिचित व्यक्तियों के मन की जानकारी आदि, मध्य एवम् अन्त नाड़ियों से की जा सकती है।संकल्प, विकल्प एवं क्रिया-प्रतिक्रिया करना मन के सहज कार्य हैं। इन तीनो की परिचायक उक्त तिन नाड़ियाँ होती है।
नाड़ियाँ 3 होती हैं_ आदि, मध्य एवम् अन्त्य
1- आदि नाड़ी- अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी,हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पुर्वाभाद्रपद।
2- मध्य नाड़ी- भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वाफाल्गुनी,चित्रा, अनुराधा, पुर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तरासभाद्रपद।
3-अन्त्य नाड़ी- कृतिका, रोहिणी, अश्लेशा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण, रेवती आदि मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है, लेकिन कुछ स्थानों पर चर्तुनाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्रभी प्रचलित है, लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाड़ी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है।
नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है, इसके बारे मे जानकारी हेतू त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवश्यकत है।आदि नाड़ी वात् स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित स्वभाव की मानी गई है, जबकि मध्य नाड़ी पित् प्रति एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है। इसका प्रमुख कारण यही है कि वात् स्वभाव के वर का विवाह यदि वात् स्वभाव की कन्या से हो तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नहीं होती।
नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहें हो तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता, अन्यथा उनमें व्यभिचार का दोष पैदा होने की सभांवना रहती है। मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है। इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अंह के कारण सम्बंन्ध अच्छे नहीं बन पाते। उनमें विकर्षण कि सभांवना बनती है। परस्पर लड़ाई -झगड़े होकर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है।
इस प्रकार की स्थिति मे प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें, जिस प्रकार वात प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए वात नाड़ी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है, अथवा कफ प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए कफ नाड़ी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाड़ी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मकताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित किया जाता है।
लड़का- लड़की की एक समान नाड़ियां हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है, इसलिए मेलापक में आदि नाड़ी के साथ आदि नाड़ी का, मध्य नाड़ी के साथ मध्य का और अंत्य नाड़ी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है। जब कि ल़ड़का-लड़की की भिन्न-भिन्न नाड़ी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है। यदि वर एवं कन्या कि नाड़ी अलग-अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है। यदि वर एवं कन्या दोनों का जन्म यदि एक ही नाड़ी मे हो तो नाड़ी दोष माना जाता है। सामान्य नाड़ी दोष होने पर ये उपाय दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर सकते हैं।
विवाह के पश्चात् उत्पन्न संतान मे भी वात सम्भावना रहती है। इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है, अन्यथा उनमें व्याभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है। मध्य नाड़ी को पित् स्वभाव की मानी गई है, इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहं के कारण सम्बंन्ध अच्छे नहीं बन पाते, उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है। परस्पर लड़ाई-झगड़े होकर तलाक की नौबत आ जाती है।
विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी गई है, इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमें कामभाव ( सेक्स )की कमी पैदा होने लगती है। शान्त स्वभाव के कारण उनमे परस्पर सामंजस्य का अभाव रहता है। दांपत्य मे गलतफहमी होना भी स्वभाविक होती है। एक नाड़ी होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है। लेकिन नाड़ी दोष परिहार की स्थिति में यदि कुण्डली मिलान उत्तम बना रहा है, तो विवाह किया जा सकता है।
कुंडली में संतान का योग
नाड़ी दोष परिहार
(3) उत्तराभाद्रपद, रेवती, रोहिणी, विषाख, आद्र्रा, श्रवण, पुष्य, मघा, इन नक्षत्र में भी वर कन्या का जन्म नक्षत्र पड़े तो नाड़ी दोष नही रहता है। उपरोक्त मत कालिदास का है।
(1) वर-वधू की एक राशि हो, लेकिन जन्म नक्षत्र अलग-अलग हों या जन्म नक्षत्र एक ही हों परन्तु राशियां अलग हो तो नाड़ी नहीं होता है, यदि जन्म नक्षत्र एक ही हो, लेकिन चरण भेद हो तो अति आ
वश्यकता अर्थात् सगाई हो गई हो, एक दूसरे को पंसद करते हों तब इस स्थिति मे विवाह किया जा सकता है।
(2) विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवति, हस्त, स्वाति, आद्र्रा, पूर्वाभद्रपद इन 8 नक्षत्रों में से किसी नक्षत्र मे वर कन्या का जन्म हो तो नाड़ी दोष नहीं रहता है।
(4) वर एवं कन्या के राशिपति यदि बुध, गुरू, एवं शुक्र में से कोई एक अथवा दोनों के राशिपति एक ही हो तो नाड़ी दोष नहीं रहता है।
(5) ज्योतिष के अनुसार-नाड़ी दोष विप्र वर्ण पर प्रभावी माना जाता है। यदि वर एवं कन्या दोनो जन्म से विप्र हो तो उनमें नाड़ी दोष प्रबल माना जाता है। अन्य वर्णो पर नाड़ी पूर्ण प्रभावी नहीं रहता। यदि विप्र वर्ण पर नाड़ी दोष प्रभावी माने तो नियम का हनन होता हैं। क्योंकि बृहस्पति एवं शुक्र को विप्र वर्ण का माना गया हैं। यदि वर कन्या के राशिपति विप्र वर्ण ग्रह हों, तो इसके अनुसार नाड़ी दोष नहीं रहता। विप्र वर्ण की राशियों में भी बुध व शुक्र राशिपति बनते हैं।
(6) सप्तमेश स्वगृही होकर शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो एवं वर कन्या के जन्म नक्षत्र चरण में भिन्नता हो तो नाड़ी दोष नही रहता है। इन परिहार वचनों के अलावा कुछ प्रबल नाड़ी दोष के योग भी बनते हैं, जिनके होने पर विवाह न करना ही उचित हैं।
(7) यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक हो एवं निम्न में से कोई युग्म वर कन्या का जन्म नक्षत्र हो तो विवाह न करें ।
(8) आदि नाड़ी- अश्विनी-ज्येष्ठा, हस्त- शतभिषा, उ.फा.-पू.भा. अर्थात् यदि वर का नक्षत्र अश्विनी हो तो कन्या नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर प्रबल नाड़ी दोष होगा। इसी प्रकार कन्या नक्षत्र अश्विनी हो तो वर का नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर भी प्रबल नाड़ी दोष होगा। इसी प्रकार आगे के युग्मों से भी अभिप्राय समझें।
(9) मध्य नाड़ी – भरणी-अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी-उतराफाल्गुनी, पुष्य-पूर्वाषाढा, मृगशिरा-चित्रा,चित्रा-धनिष्ठा,मृगशिरा-धनिष्ठा।
(10) अन्त्य नाड़ी – कृतिका-विशाखा, रोहिणी-स्वाति, मघा-रेवती; इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें।
* नाड़ी दोष होने पर संकल्प लेकर किसी ब्राह्यण को गोदान या स्वर्णदान करना चाहिए 3- अपनी सालगिराह पर अपने वजन के बराबर अन्न दान करें, एवं साथ मे ब्राह्मण भोजन कराकर वस्त्र दान करें।
* नाड़ी दोष के प्रभाव को दूर करने के लिए अनुकूल आहार दान करें। अर्थात् आयुर्वेद के मतानुसार जिस दोष की अधिकतम बने उस दोष को दूर करने वाले आहार का सेवन करें * वर एवं कन्या मे से जिसे मारकेश की दशा चल रही हो उसको दशानाथ का उपाय दशाकाल तक अवश्य करना चाहिए।
।। इती शुभम् ।।
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(5) ज्योतिष के अनुसार-नाड़ी दोष विप्र वर्ण पर प्रभावी माना जाता है। यदि वर एवं कन्या दोनो जन्म से विप्र हो तो उनमें नाड़ी दोष प्रबल माना जाता है। अन्य वर्णो पर नाड़ी पूर्ण प्रभावी नहीं रहता। यदि विप्र वर्ण पर नाड़ी दोष प्रभावी माने तो नियम का हनन होता हैं। क्योंकि बृहस्पति एवं शुक्र को विप्र वर्ण का माना गया हैं। यदि वर कन्या के राशिपति विप्र वर्ण ग्रह हों, तो इसके अनुसार नाड़ी दोष नहीं रहता। विप्र वर्ण की राशियों में भी बुध व शुक्र राशिपति बनते हैं।
(6) सप्तमेश स्वगृही होकर शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो एवं वर कन्या के जन्म नक्षत्र चरण में भिन्नता हो तो नाड़ी दोष नही रहता है। इन परिहार वचनों के अलावा कुछ प्रबल नाड़ी दोष के योग भी बनते हैं, जिनके होने पर विवाह न करना ही उचित हैं।
(7) यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक हो एवं निम्न में से कोई युग्म वर कन्या का जन्म नक्षत्र हो तो विवाह न करें ।
(8) आदि नाड़ी- अश्विनी-ज्येष्ठा, हस्त- शतभिषा, उ.फा.-पू.भा. अर्थात् यदि वर का नक्षत्र अश्विनी हो तो कन्या नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर प्रबल नाड़ी दोष होगा। इसी प्रकार कन्या नक्षत्र अश्विनी हो तो वर का नक्षत्र ज्येष्ठा होने पर भी प्रबल नाड़ी दोष होगा। इसी प्रकार आगे के युग्मों से भी अभिप्राय समझें।
(9) मध्य नाड़ी – भरणी-अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी-उतराफाल्गुनी, पुष्य-पूर्वाषाढा, मृगशिरा-चित्रा,चित्रा-धनिष्ठा,मृगशिरा-धनिष्ठा।
(10) अन्त्य नाड़ी – कृतिका-विशाखा, रोहिणी-स्वाति, मघा-रेवती; इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें।
सामान्य नाड़ी दोष होने पर किस प्रकार के उपाय करने चाहिए।
* वर एवं कन्या दोनों मध्य नाड़ी मे उत्पन्न हो तो पुरुष को प्राण भय रहता है। इसी स्थिति मे पुरुष को महामृत्यंजय जाप करना यदि अतिआवश्यक है। यदि वर एवं कन्या दोनो की नाड़ी आदि या अन्त्य हो तो स्त्री को प्राणभय की सम्भावना रहती है, इसलिए इस स्थिति मे कन्या महामृत्युजय अवश्य करे।* नाड़ी दोष होने पर संकल्प लेकर किसी ब्राह्यण को गोदान या स्वर्णदान करना चाहिए 3- अपनी सालगिराह पर अपने वजन के बराबर अन्न दान करें, एवं साथ मे ब्राह्मण भोजन कराकर वस्त्र दान करें।
* नाड़ी दोष के प्रभाव को दूर करने के लिए अनुकूल आहार दान करें। अर्थात् आयुर्वेद के मतानुसार जिस दोष की अधिकतम बने उस दोष को दूर करने वाले आहार का सेवन करें * वर एवं कन्या मे से जिसे मारकेश की दशा चल रही हो उसको दशानाथ का उपाय दशाकाल तक अवश्य करना चाहिए।
।। इती शुभम् ।।
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