ॐ श्री मार्कंडेय महादेवाय नमः

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्यवेत्।
सब सुखी हों । सभी निरोग हों । सब कल्याण को देखें । किसी को लेसमात्र दुःख न हो ।

Pandit Uday Prakash
Astrologer, Vastu Consultant, Spiritual & Alternative Healers

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

yug evam vedic dharma। युग तथा वैदिक धर्म

yug evam vedic dharma। युग तथा वैदिक धर्म

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हमारे सामने अक्सर कोई ऐतिहासिक तथ्य जानते हुए, कोई  धार्मिक ग्रन्थ पढ़ते हुए आता है कि मध्य युग, आधुनिक काल, वर्तमान काल, सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग, कलियुग आदि तो मन में युग को लेकर कौतुहल होता है कि यह युग कितने हैं? इनकी गणना क्या है? यह कब रहे हैं, इनमे क्या क्या हुआ है?
तो आइये  मित्रों सरल भाषा में यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि इस युग क्रम को हामारा वेदांग ज्योतिष कैसे परिभाषित करता  हैं ?
हिंदु सभ्यता के अनुसार युग एक निर्धारित संख्या के वर्षों के समय काल को कहते है। ब्रम्हांड का काल चक्र चार युगों में खुद को दोहराता है। यह चार युग सत्युग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग नाम से जाने जाते हैं। इस सम्पूर्ण काल अवधि को हम ब्रह्मा का एक पूरा दिन भी कहते हैं ।
हमारे शास्त्रों में इन सभी युगों का क्रमानुसार निम्नलिखित वर्णन मिलता है।

सत्य युग की आयु एवं प्रभाव

प्रथम कृतयुग अर्थात सत्ययुग इस युग को पवित्रता तथा शांति का युग कहा गया है। यह 1,728,000 (सत्रह लाख अट्ठाईस हजार)  वर्षों तक रहा। इस युग में मनुष्यों की आयु लंबी होती थी और आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया नारायण पर ध्यान लगाने की थी ( सागर को नाराह कहा गया है, क्यों की उनको नर द्वारा उत्त्पन्न किया गया, और वह उनका पहला निवास स्थान ‘ अयन ‘ था, अतः उसे नारायण नाम दिया गया )। इस युग में पाप का प्रतिशत शून्य था और पुण्य का प्रभाव पुरे सौ प्रतिशत होता था। इसी युग में भगवान विष्णु ने नरसिंह, कुर्म, मत्स्य तथा वराह अवतार  धारण किया था। महान तीर्थ पुष्कर को सतयुग का तीर्थ कहा गया है। इस युग में स्वर्ण की मुद्रा का चलन था। 

त्रेता युग की आयु एवं प्रभाव

द्वितीय युग त्रेतायुग, यह युग 1, 296,000 (बारह लाख छियानवे हजार) वषों तक रहा इसमें मनुष्यों की आध्यात्मिक प्रवित्ति में पहले युग से कमी आयी। इस युग में पाप जहाँ 25 प्रतिशत रहा तो पुण्य 75 प्रतिशत रहा।  इस युग में आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया कर्मकांड के अनुसार त्याग करना थी। सत्ययुग में मनुष्य की जो आयु होती थी इस युग में वह पहले से कम हुई । इसी युग में भगवान विष्णु ने परशुराम, राम तथा वामन अवतार धारण किया और संसार को धर्म और मर्यादा का मार्ग दिखाया।महान तीर्थ  नैमिषारण को त्रेता युग का तीर्थ कहा गया है। इस युग में चाँदी की मुद्रा का चलन था।

द्वापर युग की आयु एवं प्रभाव

द्वापरयुग यह 8,64,000 (आठ लाख चौसठ हजार) वर्षों तक रहा इसमें लोग आत्म साक्षात्कार के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार लोग मंदिरों में प्रचलित पूजा करते थे। लेकिन मनुष्यों की धार्मिक प्रवित्ति में और अधिक पतन होता गया अर्थात जितना लोग पुण्य करते थे पाप भी उतना ही करने लगे। इसी युग में भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार तथा बुध अवतार धारण किया, बुद्ध अवतार में जहाँ ज्ञान प्राप्ति का सन्देश दिया वहीँ  कृष्ण स्वरूप में निति शास्त्र की सही परिभाषा इस संसार को समझाई तथा महाभारत के युद्ध में सहभागी होकर धर्म की पुनः स्थापना की व श्रीमद्भगवदगीता जैसा ज्ञान दिया । कुरुक्षेत्र को इस युग का तीर्थ कहा गया है।
इस युग में ताम्र धातु की मुद्राएँ चलन में रही। 

कलियुग की आयु एवं प्रभाव   

वर्तमान में चल रहा युग कलियुग है। यह कुल 4,32,000 (चार लाख बत्तीस हजार) वर्षों तक चलेगा।  इसका प्रारम्भ 3000  (तिन हजार) वर्ष ईशा पूर्व अर्थात लगभग 5000 वर्षों पूर्व से हुआ है । इस कलयुग में लोगों की आयु कम हो गयी है आगे और होती जाएगी । आज के मनुष्य आध्यात्मिक विषयों अथवा आत्म साक्षात्कार के प्रति ज्यादा कोई रूचि नहीं दिखलाते, ज्यादातर धार्मिक कृत्य-आयोजन दिखावा मात्र रह गए हैं। इस युग में बुद्धि भी अल्प हुई है। यह भगवान वेद व्यास पहले ही जानते इसी लिए उन्होंने वेदों को लिखित किया व इन्हें 18 पुराणों में भी लिखित रूप देकर विद्वानों को सौंपा, उन विद्वानों ने यह ज्ञान अपने विभिन्न शिष्यों को प्रदान किया। इस प्रकार विभिन्न वेदों की संबंधित शाखाएं बनी। इस युग में पाप 75 परसेंट बढ़ गया है वहीँ पुण्य घटकर 25 परसेंट रह गया है, आज के समय की स्थिति बुरी है सच्चाई और मानवता कराह रही है इसका आज कोई मोल नहीं है। भविष्य पुराण के अनुसार इस युग में भगवान विष्णु सम्भल ग्राम में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में कल्कि नाम से जन्म लेंगे और देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर अपनी चमकती हुई तलवार से अधर्मियों का नाश करेंगे। इस युग में माता गंगा को ही परम तीर्थ कहा जाता है। आज लोहे की मुद्रा चलन में है।

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हमारा वैदिक धर्मं 

अगर हम आज का इतिहास देखे तो  ईसामसीह से 2000 वर्ष पूर्व, आर्य रूस के किसी दक्षिण भाग के निकट से अपने वैदिक धर्मानुष्ठानों और रीति-रिवाजों के साथ भारत आये, यह आधुनिक इतिहासकारों का मत है, जो अब पहले जैसी प्रमाणिकता नहीं रखता, क्यों कि सिंधु घाटी की सभ्यता ( जिस पर आर्यों ने आक्रमण किया था, ऐसा कहा जाता है ) 3500 और 2500 ईसा पूर्व वहां पर फली-फूली । वहां के दो मुख्य नगरों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाये जाने वाले पुरातत्व शास्त्र के प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि हिंदू धर्म में बाद में विकसित होने वाले कई पहलु प्रारंभिक सिंधु घाटी सभ्यता के अंग थे । वहां ध्यान मुद्रा में बैठे योगियों, भगवान शिव से मिलती-जुलती मूर्तियों जैसी वस्तुओं के अतिरिक्त यह प्रमाण भी पाया गया है कि वहां के दैनिक जीवन में मंदिर पूजा मुख्य भूमिका निभाती थी । यही वेदों में भी उस समय के लोगों के लिए महानतम आध्यात्मिक प्रगति की रीति निर्धारित की गयी थी ।

अथर्वेद में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियों का उल्लेख है और वैदिकधर्म दूसरे मार्गों को भी स्वीकार करता है । तभी तो वैदिक धर्म ने दूसरे धर्मों को नष्ट करने की न कभी कोशिश की और न करेगा । अपने दृष्टिकोण में वह अत्यधिक विश्वव्यापक है । वैदिक संस्कृति के आज तक जीवित रहने का प्रतीक सायद यह प्रार्थना है–
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

इस प्रार्थना का अर्थ यही है कि - सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। हमारे समाज में  यह प्रार्थना आज भी दोहराई जाती है । वेदों का सबसे प्रिय सिद्धांत विश्व-स्तर पर भिन्नता में एकता है । वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है और यही हमारी शक्ति भी है ।

हमारी मातृभूमि के प्रति विश्व अत्यधिक ऋणी है । धरती के किसी भी देश की एक भी जाती ऐसी नहीं है, जिसके प्रति संसार इतना ऋणी हो, जितना धैर्यशील हिंदू , (अर्थात प्राचीन भारतीय) के प्रति है। प्राचीन और आधुनिक काल में राष्ट्रिय जीवन के बढ़ते हुए ज्वार द्वारा महान सत्य तथा शक्ति के जो बीज डाले गए थे वे सदैव युद्ध में भयानक नाद करने वाली तुरहियों के माध्यम से दूसरी भूमियों पर गिरे । प्रत्येक विचार रक्तरंजित होने पर ही आगे बढ़ पाया । दूसरे राष्ट्रों ने मुख्य रूप से यही सिखाया, परंतु भारत हजारों वर्षों तक शांतिपूर्वक स्थित रहा ।
हमारे वैदिक धर्म ने जो सिखया है और हमारा जो स्वभाव है, उसी के अनुसार हमें अपना विकाश करना चाहिए । विदेशियों द्वारा थोपी गई कार्य करने की नीति को अपनाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है, यह असंभव भी है । हमें दूसरी जातियों की संस्थाओं या प्रथाओं की निंदा नहीं करनी है, वे उनके लिए अच्छी हैं पर हमारे लिए नहीं । जो वस्तु एक व्यक्ति के लिए उपयुक्त है, वह दूसरे के लिए विष हो सकती है यह प्रथम शिक्षा है जो सीखनी है । उन्होंने जो आधुनिक व्यवस्था प्राप्त की है उसकी पृष्ठभूमि में दूसरे विज्ञान , दूसरी संस्थाएं और दूसरी परम्परायें हैं । हम स्वाभाविक रूप से अपनी मानसिक प्रवित्ति का पालन कर सकतें हैं, जिसके पीछे हमारी परम्परायें और हजारों वर्षों के पूर्व कर्म हैं । हम अपने ही पूर्व निर्मित मार्ग पर दौड़ सकते हैं और वही हमें करना पड़ेगा ।

कुंडली में शिक्षा के योग 
आभा मंडल क्या है 

पं. उदयप्रकाश शर्मा

1 टिप्पणी:

  1. इतनी अच्छी जानकारी जो बहुत सरल भाषा मे समझाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी

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